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Friday, November 23, 2007

नंदीग्राम के निहितार्थ

मालंच

प्रभाष जोशी ने जनसत्ता मे अच्छा सवाल उठाया कि आखिर वाम के राज मे यह नौबत क्यों आयी कि नंदीग्राम के किसान-मजदूर जब केमिकल हब के लिए प्रस्तावित ज़मीन अधिग्रहण का विरोध करने निकले तो डेढ़ हजार माकपा कैडर उस इलाके से भागने को मजबूर हो गए? कांग्रेस या भाजपा शासित किसी प्रदेश मे तो ऐसा नही होता कि किसी प्रस्तावित परियोजना से उजड़ने वालों का विरोध सत्ताधारी दल के कार्यकर्ताओं को उस इलाके से बेदखल ही कर दे? जवाब माकपा कैडर के उन तौर-तरीकों मे है जो वे पूरे पश्चिम बंगाल मे अपना दबदबा बनाए रखने के लिए अपनाते रहे हैं. किसी भी नाम पर आप लोकतांत्रिक विरोध की गुंजाइश ख़त्म करेंगे तो नतीजा वही होगा हिंसात्मक विरोध मे इजाफा.

बहरहाल, नंदीग्राम मुद्दे पर संसदीय बहस ने आम लोगों को जैसे चौराहे पर ला खडा किया है. लेफ्ट फ्रंट की सरकार मे शामिल अन्य दलों ने माकपा को दोषी बताते हुए अपना हाथ झाड़ लिया है, हालांकि सरकार मे वे आज भी शामिल हैं. शायद सामूहिक जिम्मेदारी का सिद्धांत वाम दलों की सरकार पर लागू नही होता. वाम मोर्चे से बाहर माकपा की सबसे तीखी आलोचना भाजपा के नेता कर रहे हैं. मगर न केवल वाम नेता बल्कि कांग्रेस का भी यही मत है की उन्हें आलोचना करने का हक़ नही क्योंकि उनके गुजरात मे गोधरा के बाद जो कुछ हुआ था वह सारी दुनिया देख चुकी है. बात सही है.

जब कांग्रेस नंदीग्राम और गुजरात हिंसा की बात करती है तो पता चलता है कि उसे इस बारे मे बात करने का हक़ नही क्योकि चौरासी के दंगों मे उसके नेताओं ने जो किया-करवाया था वह किसी से छुपा नही है. यह बात भी सही है.

लेकिन जो सवाल हमारे सामने आता है वह यह कि वाम दलों का असली चेहरा सामने आ जाने, भाजपाइयों की करतूतें उजागर हो जाने और कांग्रेस की कलई खुल जाने के बाद हमारे सामने क्या बचता है? अन्य छोटे-मोटे जो भी दल हैं वे इन्ही मे से किसी न किसी का पल्लू थामे हुए हैं.

इस स्थिति के बावजूद हम इन्ही दलों से उम्मीदें बांधे रहें और प्रबुद्ध मतदाता कहलाते रहें तो बदलाव की संभावना ख़त्म होती है और इससे बाहर विकल्प ढूंढें तो बंदूकें लिए नक्सली खडे मिलते हैं. क्या कोई ऐसी राह भी है जो नक्सलियों की बंदूक और इन दलों के बीच से निकलती हो? अगर नही है तो क्या बनाई जा सकती है?

इन सवालों से उलझना अब टाला नही जा सकता अगर सचमुच राजनीति की सूरत बदलनी है.

2 comments:

Srijan Shilpi said...

जनता ने अभी तक इन दलों को पूरी तरह खारिज नहीं किया है। नए और बेहतर विकल्प उभर सकते हैं, लेकिन उसके लिए शायद अनुकूल समय आया नहीं है।

बगैर रोए तो मां भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती। जनता एक बार विकल्प की जरूरत महसूस तो करे।

Sanjeet Tripathi said...

सटीक!!

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