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Sunday, December 2, 2007

सुलभ शौचालय साफ करते पंडित जी। क्या ये जातिवाद की आखिरी हिचकियां हैं!

-दिलीप मंडल
"दुबे जी, जरा बीच वाला लैट्रिन साफ कर दीजिए!" सुलभ शौचालय के सुपरवाइजर की ये आवाज अचानक कानों से टकराई तो एक झटका सा लगा। फिर दिखे एक दुबले-पतले से दुबे जी। बनियान से झांकता जनेऊ और घुटने तक चढ़ा पजामा। हाथों में वाइपर लिए आए, सहजता से अपना काम करके चले गए। न कोई झिझक न कोई अलग होने का एहसास। उनके अलग होने का एहसास सिर्फ इस बात से हुआ कि सुपरवाइजर किसी और स्वीपर को जी कहकर नहीं बुलाता। उन्हें देखकर एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि वो कोई ऐसा काम कर रहे हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए। अगर आप महानगरों में हैं तो आपको दुबे जी , पांडे जी या ऐसे ही कोई और जी नामधारी स्वीपर किसी एनडीएमसी, किसी सुलभ शौचालय , किसी बीएमसी टॉयलेट में ड्यूटी पर तैनात मिल जाएंगे।

आउटलुक ने कुछ महीने पहले जब सुलभ शौचालय में सफाई करते एक जनेऊधारी ब्राह्मण की तस्वीर छापी थी, तब भी लोग चौंके थे। लेकिन अगर आप अपने आस पास नजर दौड़ाएंगे तो सेवा के काम में लगे ब्राह्मण या दूसरी सवर्ण जातियों के लोग आपको आसानी से दिख जाएंगे। विजिटिंग प्रोफेसर बनकर पेंसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी गए अपने मित्र और नए बदलते समय को लगातार परख रहे चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने शहरी समाज में आ रहे बदलाव के अध्ययन के लिए अपने अपार्टमेंट के पास बने गाजियाबाद के ईडीएम मॉल को केस स्टडी बनाया और उन्हें रोचक फैक्ट्स मिले।

वहां उन्होंने पाया कि हाउसकीपिंग का काम करने वालों में दलित जातियों के युवकों से ज्यादा सवर्ण युवक हैं। फर्श की सफाई से लेकर टॉयलेट साफ करने जैसे काम करने जैसे दलितों के समझे जाने वाले काम करने में अब किसी जाति विशेष के लोगों को ही तलाशने की कोशिश निरर्थक है। मैक्डॉनल्ड जैसे रेस्टोरेट में जूठे प्लेट उठाने से लेकर काउंटर पर बैठने वालों का रोल आपस में बदलता रहता है और इस काम में भी सवर्ण युवक ज्यादा मिले। चंद्रभान जी ने अपनी उस केस स्टडी के बारे में नवभारत टाइम्स में पिछले दिनों लिखा था और आगे भी वो इस विषय पर काम करेंगे।

वैसे भी फ्लाइट के दौरान आपकी जूठी प्लेट उठाने से लेकर वोमिटिंग साफ करने तक का काम करने वाली एयर होस्टेस और फ्लाइट स्टिवर्ड के जॉब में तो दलित कम ही हैं। मैंने खुद अपने शहर बोकारो स्टील सिटी में स्वीपर कॉलोनी में पांडे और मिश्र जी के क्वार्टर देखे हैं। पंद्रह से बीस हजार की तनख्वाह और पक्की नौकरी के लिए बोकारो जैसे शहर में जाति और कर्म के बंधन को ढीला होते हुए मैंने देखा। वैसा ही कुछ ज्यादा असरदार रूप में दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में नजर आ रहा है।

देश में सबसे तेजी से बढ़ते सर्विस सेक्टर को अगर आप वो क्षेत्र मानें जहां शास्त्रों के मुताबिक सिर्फ शूद्रों को काम करना चाहिए, तो यहां शूद्रेतर जातियां ही ज्यादा हैं। उसी तरह नए समय में अगर आप सिविल सर्विस को राज करने का कर्म मानें (जहां शास्त्रीय परंपरा के मुताबिक क्षत्रीय ही होने चाहिए) तो वहां 50 परसेंट से ज्यादा सीटों पर शूद्र (ओबीसी), अंत्यज (दलित) और आदिवासियों का कब्जा है। 49.5 परसेंट का तो रिजर्वेशन है और अब इन तबकों में वैसे कैंडिटेट की संख्या बढ़ रही है जो मेरिट के दम पर जनरल लिस्ट में जगह बना रहे हैं। आज आप ये नहीं कह सकते कि किसी कर्म पर किसी जाति का एकाधिकार है (स्पीपर के काम पर भी नहीं)!

शहरीकरण के साथ समाज में आ रहा ये बदलाव कितना गभीर है? क्या जाति व्यवस्था के निर्णायक तौर पर खत्म होने की ये शुरुआत है? इस बारे में निर्णायक तौर पर कुछ कहने का समय शायद अभी नहीं आया है। उत्पादन संबंधों में शहरीकरण के साथ बदलाव को लेकर किसी शक की गुंजाइश नहीं है। जाति व्यवस्था को अगर आप सामंती उत्पादन संबंधों के साथ जुड़ी अवधारणा मानते हैं तो आप इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि सामंतवादी उत्पादन संबंधों के कमजोर पड़ने के साथ जाति की जकड़न ढीली होती जाएगी।

हालांकि जाति ने पिछले दो हजार साल में बहुत मजबूत और झटकों को झेलने में सक्षम संस्था के रूप में खुद को स्थापिक किया है। इसलिए जाति खत्म भी होगी तो ये बहुत स्मूथ प्रक्रिया शायद ही साबित हो। जाति व्यवस्था के स्टेकहोल्डर्स इसे इतनी आसानी से खत्म नहीं होने देंगे। आरक्षण को लेकर सवर्ण समाज की जिस तरह की हिंसक प्रतिक्रिया (ताजा मिसाल असम है) हर बार सामने आती है, उस पर नजर रखिए। जैसे जैसे जातिवाद पर हमला तेज हो रहा है वैसे ही सवर्ण घृणा ज्यादा क्रूर रूप में सामने आ रही है। उसी तरह दलित उभार के विरोध में कई जगहों पर ओबीसी जातियां भी विभत्स तरीके से रिएक्ट कर रही हैं।

ऊपर लिखा लेख दरअसल प्रिंट के लिए लिखा गया है। इसका ठेका मुझे लगभग दो हफ्ता पहले मिला था। लेकिन आलस्य की वजह से लिखना टलता गया। वैसे इस विषय पर मेरा पहले का लिखा एक लेख आप नीचे लिखे लिंक को क्लिक करके देख सकते हैं।

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/925456.cms

2 comments:

अफ़लातून said...

बिन्देश्वरी पण्डित की दुकान सुलभ शौचालय के साथ 'निपटान शुल्क' और नहान शुल्क' जुड़ा है इसलिए वहाँ पण्डित मौजूद हो गया है । ज्यादातर घरों में स्त्रियाँ खाना बनाती हैं जिसकी गणना राष्ट्रीय आय में नहीं होती,परन्तु होटल-ढाबों में आर्थिक गतिविधि बनते ही यह पुरुष हाथ में चली जाती है ।

drdhabhai said...

कब हम मनुष्य को जातियों में बांटना बंद करेंगे,इस तरह के शोध परक लेख निश्चित ही जातिवाद की खाई को और मजबूत करेंगे

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