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Monday, December 17, 2007

कहीं ब्लॉग को भी न लग जाए साहित्य वाला रोग!

हिंदी ब्लॉग के लिए नया साल कैसा हो, इस बारे में मैने कुछ ख्वाब देखे थे। उन्हें ब्लॉग पर भी डाल दिया। नया साल आने वाला है - हर आदमी कुछ योजनाएं बनाता है, कुछ ख्वाब बुनता है, कुछ कसमें खाता है। लेकिन भाई अभय को ये बात गलत लगी की ब्लॉगर्स मीट जैसे निर्दोष आयोजनों को बंद करने की बात दिलीप मंडल क्यों कर रहे हैं।

अभय भाई के विचारों का आदर करता हूं। उनके लेखन का मैं कायल रहा हूं। और फिर हम कोई वेद तो रचते नहीं हैं कि श्रुति परंपरा से अपने लिखे को शब्दश: उसी रूप में बनाए रखा जाए। अभय भाई के लेख और उन पर आई टिप्पणियों पर सोचकर मैं अपनी नई राय बना सकता हूं। इसलिए अगर कोई हमारे संवाद को झगड़ा मानकर मजे लेने की सोच रहा है तो माफ कीजिए, ऐसे लोगों की मंशा पूरी का मेरा कोई इरादा नहीं है। लेकिन बात खरी-खरी होगी और स्वागत है आपका इस चर्चा में।

जो लोग इस चर्चा में नए हैं वो या तो ये लिंक देख लें या फिर मेरे सपनों के शीर्षक को पढ़ लें।

हिंदी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो / हिंदी ब्ल़ॉग के पाठकों की संख्या लाखों में हो / विषय और मुद्दा आधारित ब्लॉगकारिता पैर जमाए / ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो / ब्ल़ॉग के लोकतंत्र में माफिया राज की आशंका का अंत हो / ब्लॉगर्स मीट का सिलसिला बंद हो / नेट सर्फिंग सस्ती हो और 10,000 रु में मिले लैपटॉप और एलसीडी मॉनिटर की कीमत हो 3000 रु

दरअसल इसी से जुड़ी मेरी एक और चिंता है कि बड़ी कठिनाइयों के बाद घुटनों के बल चलने की कोशिश कर रही हिंदी ब्लॉगकारिया का हाल हिंदी साहित्य जैसा न हो जाए। यानी हम कुछ लोग लिखेंगे- वही लोग पढ़ेंगे- वही लोग समीक्षा करेंगे- वही भाषण देंगे और वही एक दूसरे को पुरस्कार दे देंगे। हिंदी का साहित्य बरसों से जमे मठाधीशों और प्रकाशकों की कृपा से पाठकों से स्वतंत्र हो गया है। यानी साहित्यकार ही साहित्य का पाठक भी है। अधिकतम 500 का प्रिंट ऑर्डर इसी बीमारी की क्रोनिक अवस्था है।

कहीं ये बीमारी हमारे ब्लॉग न लग जाए। जिन चीजों और प्रवृत्तियों के निषेध की कामना मैंने की थी, वो मूल रूप में साहित्य जगत की बीमारियां है। ब्लॉगर्स के बीच कई बार अश्लीलता की हद तक पहुंचती आम सहमति, एक दूसरे की पीठ खुजाने की प्रवृत्ति, आपस में लिखा और आपस में ही पढ़कर वाह वाह करने जैसी टेंडेसी जिन्हें ठीक लगती हो, उन पर मेरा कोई जोर तो चलता नहीं है। लेकिन इन प्रवृत्तियों को गलत मानने के अपने अधिकार का मैं इस्तेमाल करना चाहता हूं।

हमारे कुछ दोस्त मानने को तैयार ही नहीं है कि इस भाईचारावाद से कोई नुकसान है। कुछ तो आंख मूदकर बैठे हैं और कह रहे हैं कि कहां है भाईचारावाद, हमें तो नहीं दिखता। इस बारे में मैने एक छोटा-सा सैंपल साइज लेकर एक अध्ययन किया है।

- अभय भाई के ब्लॉग निर्मल आनंद पर ये लेख लिखे जाते समय तक दिसंबर महीने में 15 पोस्ट हैं। इनमें ज्यादातर पोस्ट शानदार हैं और उन्हें गौर से पढ़ा जाना चाहिए। उनकी दृष्टि में विविधता है और जटिल बातों को सहज अंदाज मे कहने की कला उनसे सीखी जा सकती है।

- इन सभी पोस्ट पर कुल मिलाकर 130 टिप्पणियां है (भूल चूक लेनी देनी), जिन्हें अभय भाई सदुपदेश कहते हैं। इनमें कुछ स्पष्टीकरण अभय भाई के अपने हैं।

- दिसंबर महीने में अब तक इस पोस्ट पर टिप्पणियां भेजने वालों को देखें तो उनमें तीन लोग ऐसे हैं जिन्होंने 9-9 टिप्पणियां भेजी हैं। 15 पोस्ट में 9 बार एक ही आदमी की टिप्पणी। और ऐसी टिप्पणी करने वाले एक नहीं तीन लोग। एक शख्स ने 8 टिप्पणियां भेजी हैं। 7 टिप्पणी करने वाले भी एक हैं। 6 टिप्पणियां करने वाले भी हैं, 5 वाले भी और चार वाले भी। गिनती में गलती हो तो अभय भाई करेक्ट कर देंगे। लेकिन बात यहां ट्रेंड की है गिनती का मामला गौण है।

- पोस्ट करने वालों के नाम पब्लिक डोमेन में है और उन नामों का यहां जिक्र करने से कोई मकसद पूरा नहीं होता। इसलिए जिन्हें नामों में दिलचस्पी है, वो अपना 15 मिनट इस काम में खोटा कर सकते हैं।

अगर आप ब्लॉग को एक फलते-फलते माध्यम के तौर पर आगे बढ़ता हुआ देखना चाहते हैं, और एक साल में हिंदी ब्लॉग की संख्या 10,000 तक पहुंचने जैसे ख्वाब देख रहे हैं, तो ऊपर लिखी बात आपको असहज लगनी चाहिए। वरना तो साधुवाद है ही।

और एक महत्वपूर्ण बात। बार-बार एक ही टिप्पणीकार का किसी ब्लॉग पर आना अभय भाई की निजी समस्या नहीं है। सभी ब्लॉग का थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा ऐसा ही हाल है। इसलिए अभय भाई के खिलाफ कोई निंदा प्रस्ताव पारित करने से पहले अपने ब्लॉग के गिरेबां में झांककर देखिएमैंने अपने यहां भी इस समस्या को इतनी ही गंभीर शक्ल में देखा हैइससे बचने का रास्ता निकालेंमुझे भी बताएं कि रास्ता क्या है?

दिलीप मंडल जैसों को गालियां तो बाद में भी दी जा सकती हैं।

5 comments:

भुवन भास्कर said...

दिलीप जी ने ब्लॉगिंग की एक ऐसी संभावित समस्या की ओर ध्यान खींचा है, जिसके बारे में वैसे हर लेखक-पाठक को चिंता करनी चाहिए, जो ब्लॉगिंग को विचार अभिव्यक्ति का एक शानदार ज़रिया मानते हैं। मैं भी कई दिनों से ये महसूस कर रहा हूं कि बहुत से बंधुओं ने दरअसल ब्लॉगिंग की अपनी दुकान सजा ली है और इसकी मार्केटिंग के लिए ज़बर्दस्त नेटवर्किंग भी खड़ी कर ली है। इस तरह की प्रवृत्ति से हो सकता है कुछ दुकानें जगमगाती रहें, लेकिन ब्लॉगिंग भावना का भला नहीं होगा- ये तो तय है।

Neelima said...

जी आप सही कह रहे हैं ! आपने एक सैंपल उठा कर अपनी बात को प्रस्तुत किया है !हम यदि अपनी चित्ठाकारिता के ब्लॉग रोल सजाने की " परंपरा को देखॆं तब भी यही नतीजे सामने आते हैं !पत्रकारों के ब्लॉग रोल में पत्रकार ही मिलेंगे या नियमित (परस्पर आदान प्रदानात्मकता की भावना लिए )टिप्पणी कर्ता को ब्लॉग रोल में सजा देखा जा सकता है वगैरह ...! पर फिर भी मैं रविरतलामी जी बात से ज्यादा सहमत हूं ..नहीं लगेगा ब्लॉग को साहित्य वाला रोग !!

अभय तिवारी said...

दिलीप जी.. सब से पहले तो मैं आप का धन्यवाद देना चाहूँगा कि आप ने एक स्वस्थ संवाद का रास्ता खोला है। अपने ब्लॉगजगत पर टिप्पणियों की जो संस्कृति है उस पर आप की पैनी नज़र और निष्कर्ष काबिले तारीफ़ हैं। मैं आप की इस बात से पूरी तरह असहमत नहीं हूँ.. और पूरी तरह सहमत भी नहीं। हमारे चिट्ठों के पाठक वही गिने चुने हैं और बार-बार वही लोग टिप्पणी करते हैं.. और अक्सर सिर्फ़ पीठ थपथपाने ले लिए ही करते हैं.. जिसे कोई पीठ खुजाना भी समझ सकता है; ये बातें सही हैं।
आप का डर है कि ये प्रवृत्तियाँ हिन्दी साहित्य की दुनिया की हैं जिसने साहित्य की दुनिया को बरबाद कर रखा है। मैं आप की यह बात भी मान लेता हूँ, बावजूद इसके कि हिन्दी साहित्य की दुनिया को मैं ठीक से नहीं जानता। पर अपने समाज को जानता हूँ जिसमें भाई-भतीजावाद, जुगाड़वाद खूब चलता है। मेरा मानना है कि चूँकि इस बुराई की जड़ हमारे उस समाज में हैं जिस से हम आते हैं तो इस से पूरी तरह बच पाना असम्भव होगा।
अंग्रेज़ी ब्लॉगस की दुनिया में ये प्रवृत्ति इस तीव्रता से नहीं मिलती.. पर मिलती है। अतनु डे के ब्लॉग पर आप उन्ही पाठकों को बार-बार आते हुए देख सकते हैं.. पर वे ‘पीठ नहीं खुजाते’.. बहस करते हैं। फिर हमारे हिन्दी ब्लॉगस की दुनिया में ऐसा क्यों है? इस का विरोध करने से पहले इसे समझा जाय ! मेरे समझ में ये पाठकों की सीमा के चलते हैं.. जो चिट्ठाकार हैं वही पाठक भी हैं। ऐसे लोग बहुत ही कम हैं जो शुद्ध पाठक हैं- जैसे जैसे वे आएंगे.. चिट्ठाकार टिप्पणी पाने के लिए साथी चिट्ठाकारों पर निर्भरता से स्वतंत्र हो जाएगा।
इस बारे में समीर लाल जी ने बड़ी अच्छी बात बताई। उन्होने बताया कि हिन्दी चिट्ठाकारिता के शुरुआती दिनों में बहुत सारे चिट्ठे सिर्फ़ इसलिए बंद हो गए क्योंकि कोई टिप्पणी नहीं मिली। उन्होने बताया कि खुद अपनी कई पोस्ट को उन्होने कई बार दुबारा चढ़ाया ताकि टिप्पणी आए। अपने भीतर टिप्पणी की ऐसी चाह देखकर उन्हे टिप्पणी के संजीवनी होने का एहसास हुआ और उन्होने घूम-घूम कर उत्साहवर्धक टिप्पणी बाँटना शुरु कर दिया। व्यक्ति ने कैसा भी लिखा हो अगर कोई ये कहने वाला मिल जाय कि अच्छा लिखा/ लिखते रहें/ आभार तो लिखने का बल बना रहता है- ऐसा कहा समीर भाई ने। जब कि हिन्दी चिट्ठाकारिता अपने शैशव काल में थी.. ऐसे उत्साहवर्धन की ज़रूरत थी। अब कितनी ज़रूरत है और आगे कितनी ज़रूरत पड़ेगी ये दूसरे सवाल हैं..
सवाल ये भी है कि टिप्पणी क्यों चाहिये हमें या लिखने वाले को? जैसे कवि को श्रोता चाहिये.. गाने वाले को सुनने वाला चाहिये.. अभिनेता को देखने वाला चाहिये.. वैसे ही ब्लॉगर को टिप्पणी करने वाला चाहिये.. इसे आर्यसत्य मान लिया जाय ! चमचागिरी/ चाटुकारिता गन्दी चीज़ें हैं.. समझदार व्यक्ति इनसे जितना दूर रहे उतना ही वह वास्तविकता के करीब रहेगा। पर दुनिया के सभी लोगों को अपनी तारीफ़ अच्छी लगती है.. यह भी एक वास्तविकता है!
मेरे एक मित्र हैं जो सालों तक क्रांतिकारी राजनीति से जुड़े रहे। उनका अपना ब्लॉग भी है। और टिप्पणी के बारे में उनकी राय आप से ज्यादा अलग नहीं है। पहले तो करते नहीं और करते हैं तो साधुवादी टिप्पणी कभी नहीं.. असहमति की अभिव्यक्ति या बहस में योगदान के लिए ही बस। यही साथी अपने चिट्ठे पर टिप्पणी के अभाव में बेचैन हो कर चिट्ठा बंद कर देने जैसे विचार से भी दो चार होने लगते हैं।
मेरी समझ में सामाजिक तौर पर हिन्दी समाज एक हीनग्रंथि से ग्रस्त समाज है.. जिसका आत्मविश्वास झूला हुआ रहता है.. टिप्पणियाँ हमारे आत्मविश्वास का सहारा बनती हैं। जिस दिन हम अपनी इस ग्रंथि से मुक्त हो जाएंगे तो टिप्पणी की हमारी भूख पूरी तरह शांत भले न हो कम ज़रूर हो जाएगी..

VIMAL VERMA said...

दिलीपजी,मुद्दा आपने सही उठाया है, ,कुछ अलग अलग लोगो की मंडली भी है जो एक दूसरे की वाह मे वाह मिलाते रहते है,टिप्पणियां मिलती है,उसे आप वहीं पढ भी लेते है,ये समझिये पहला चरण है, इसके विकास में वाह वाह,साधुवाद,धन्यवाद,शुक्रिया आदि से अभी काम चल जा रहा है,धीरे धीरे दूसरे चरण में देखना है साधुवाद और वाह वाह का क्या रूप हमारे सामने आता है ,क्योकि आदमी कबतक नकली बना रह सकता है?

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

दिलीपजी चाहते हैं कि उनकी बातों से व्यर्थ ही सहमत न हुआ जाए. उनकी इस पवित्र इच्छा का मैं सम्मान करता हूँ. पहले उनके सामने अपनी इस मुद्रा के बारे में स्पष्ट कर दूँ. अगर आप इस पोस्ट के बारे में कहेंगे कि जो लोग सहमत हों, वे हाथ उठाएं और जो असहमत हों, वे हाथ नीचे किए रहें. तो लीजिये मैं हाथ ऊपर उठाता हूँ.
प्रश्न यह होना चाहिए कि आप किस बात से सहमत हो रहे हैं. वरना हरिशंकर परसाईजी वाले 'असहमत' निबंध के दलबदलू चरित्र जैसा हाल हो जायेगा.
दिलीपजी ने यह जो ब्लॉगकारी का हादसा-पूर्व सर्वेक्षण किया है, कितना सही होता है; यह नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा.

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