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Wednesday, January 23, 2008

नादान हैं वो क्या जानें

आर. अनुराधा

दिल्ली में सत्ता के गलियारों में बड़े-बड़े खेल होते हैं जिनकी हम जैसे अदना कर्मचारी चर्चाएं ही सुनते-पढ़ते हैं। लेकिन इन बड़े दफ्तरों की राज्यों में मौजूद शाखाएं अपने-आप में भूल-भुलैया से कम नहीं। आग में हाथ डालने पर ही उसकी तपिश और जलन का वास्तविक अहसास होता है। मेरी एक सहेली वासंती को ऐसे ही एक क्षेत्रीय दफ्तर में काम करने का मौका मिला।

सरल इंसान होना नासमझी की निशानी है। महिला होने पर लोग इस दुर्गुण को कुछ समय तक झेल भी जाते हैं। लेकिन हथौड़े की धमक की तरह लगातार होते भारी इशारों और उस माहौल में दो साल गुजारने के बाद भी कोई उस ढर्रे के तौर-तरीके न समझ-सीख पाए, यह तो कतई नाकाबिले-बर्दाश्त बात है।

अव्वल तो उसने नए दफ्तर में जाना शुरू करते ही वहां का माहौल बिगाड़ दिया। साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुंच जाना और छह बजे से पहले घर के लिए न निकलना। दफ्तर में बिजली की खपत उसकी वजह से बढ़ी क्योंकि लाइट, पंखे, कंप्यूटर उसकी बजह से ज्यादा समय तक चालू रहने लगे।

सहयोगियों को शाम को भारी ट्रैफिक की दिक्कतें हर दिन झेलनी पड़ीं। कारण- जब तक प्रशासनिक अधिकारी न जाए, दफ्तर के कुछेक कर्मचारियों को तो रुकना ही पड़ता था। तिस पर काम ज्यादा होने लगा तो कागज़ की खपत भी बढ़ गई। बड़े दफ्तर यानी हेडक्वार्टर और राज्य के दूसरे दफ्तरों के साथ चिट्ठी-पत्री बढ़ी तो अब तक जो स्टेशनरी दफ्तर से निकल कर आधे-पौने में वापस बाजार पहुंच रही थी, अब मुफ्त में इन दफ्तरों में पहुंचने लगी। अखबार जो रोज-के-रोज रद्दी में बिक रहे थे बिना किसी झंझट-झमेले के, दफ्तर में ही ढेर बनने लगे। और-तो-और उनका हिसाब तक रखा जाने लगा।

देर शाम होने वाली कागजों-कलमों की तिजारत में रुकावट पड़ी तो लोग खिन्न हो गए। शाम के झुटपुटे में अतिथि-सत्कार के मद में खरीदी गई शराब और ताश के खेल का आनंद लेने से वंचित रहने लगे तो मानो कहर ही बरपा हो गया।

वासंती की इन बेवकूफाना हरकतों से शुरू में तो लोग चौंके और फिर कुछ समय तक नासमझ समझ कर माफ करते रहे। बाद में जब उसकी नासमझी अझेल होने लगी तो पहले हल्के इशारे मिलने लगे जो धीरे-धीरे भारी होते गए। शाम पांच बजते-न-बजते दफ्तर पूरा खाली हो जाता। फर्राश आस-पास के कमरों के साथ ही मुख्य गलियारे की बत्तियां भी खटाखट बंद करने लगता। य़ह उसके लिए इशारा होता कि दफ्तर बंद करने का वक्त हो गया है, अब निकलो मैडम!

फिर कुछ दिनों बाद लोगों ने शाम होते ही उसके कमरे का भी एसी बंद करना और साथ ही कमरे में बेवजह चक्कर लगाना शुरू कर दिया। बीच में कोई खींसें निपोर कर धीरे से बुदबुदा भी जाता- "मैडम, पांच बज चुके हैं।"

धीरे-धीरे उनका धैर्य टूटने लगा। पानी सर के ऊपर से गुजरने लगा तो उन्होंने अफवाहें फैलानी शुरू कर दीं- वासंती के कुछ लोगों से संबंधों को लेकर, सरकारी फोन और फैक्स मशीन के दुरुपयोग को लेकर।

इन सबके मुकाबले के लिए उसके पास भी एक मजबूत हथियार था- उनके ओवर टाइम अलाउंस के कागजों पर दस्तखत का, जिसका अहसास उन्हें महीना खत्म होते ही हो गया। उसने शर्त रख दी कि वे 10 से 5.30 बजे तक दफ्तर में हाजिर रहें तो वह दस्तखत कर देगी।

मगर वो सब बड़े और उस माहौल में रचे-बसे थे। उनके साथ व्यवहार की तमीज वासंती ने कहां सीखी थी। यह हथियार भी कुछ ही लोगों पर कारगर रहा। यहां तो पूरी फौज थी सामना करने को। बाकी सब हजार बहानों का पुलिंदा लिए आते। उनमें से किसी का कागज वह पास कर देती, किसी का नहीं। सबने किसी तरह वासंती के साथ गुजारा किया।

यह सब होते-होते वासंती का तबादला हो गया- उसी शहर के एक और दफ्तर में। लेकिन उसकी कीर्ति उससे पहले वहां पहुंच चुकी थी। उस नाकाबिल के लिए वह दफ्तर भी वैसा ही था।

और पुराने दफ्तर में? लोगों ने राहत की सांस ली। इतने दिनों से खिचा हुआ रबरबैंड अगले ही दिन एक झटके में अपने मूल आकार में आ गया।

2 comments:

Tarun said...

sarakri daftar ke karmcahriyon ka sach likh diya aapne

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अच्छा लिखा. नादान की जगह 'नादाँ' होना चाहिए था..

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