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Saturday, February 9, 2008

मीडिया में महिलाएं हैं चोखेर बाली

हिंदी मीडिया के महत्वपूर्ण पदों पर सिर्फ 12% महिलाएं । इंग्लिश हिंदी मिलाकर देखें तो 17% की हिस्सेदारी।

देश की राजधानी में मीडिया के उच्च पदों पर 0% दलित, 0% आदिवासी, 4% ओबीसी, 3% मुसलमान।

देश की आबादी में सवर्ण पुरुषों की संख्या 8% और मीडिया के उच्च पदों पर उनकी है संख्या 71%।

क्या इस बारे में की गई बातचीत, जताई गई चिंता अश्लील है, अनर्गल है, मलाई चाभने वाले दलितों और पिछड़ों की साजिश है, ओछी बात है, निंदनीय है? अगर आपको ऐसा लगता है तो आपकी नीयत पर हमें शक है। आपकी प्रगतिशीलता संदेह के दायरे में है। और ऐसा क्यों हो रहा है।

चलिये मान लेते हैं कि दलित-पिछड़े-आदिवासी-मुसलमानों में प्रतिभा की कमी है। टेलेंट लेकर पैदा ही नहीं होते। लेकिन महिलाओं के साथ ऐसा क्यों है? उनमें तो टेलेंट की कमी नहीं है। टॉप पर पहुंचने से पहले वो कहां रुक जाती हैं? या रोक दी जाती हैं?

इस साल 12वीं की सीबीएसई परीक्षा में 85 परसेंट लड़कियां पास हुई जबकि लड़कों का पास परसेंटेज 77 परसेंट तक ही पहुंच पाया। टापर्स में भी लड़कियां ज्यादा हैं और लड़के कम। देखें रिजल्ट की खबर । साल दर साल लड़कियां दसवीं और बारहवीं के नतीजों में लड़कों से बेहतर परफॉर्म कर रही हैं। लेकिन ये टेलेंटेड लड़कियां मीडिया में क्यों नहीं दिखतीं। खासकर हिंदी मीडिया में।

मीडिया के महत्वपूर्ण पदों पर अलग अलग जातीय धार्मिक समूहों और स्त्री पुरुष की संख्या जानने के लिए 2006 की गर्मियों में दिल्ली में एक सर्वेक्षण हुआ। इसके लिए राजधानी के 40 मीडिया संस्थानों को एक प्रश्नावली भेजी गई। इसमें ये पूछा गया कि उनके यहां जो दस लोग बड़ें फैसलों में हिस्सेदार होते हैं, उनका धर्म, जाति, लिंग, मातृभाषा और प्रदेश कौन से हैं। तीन मीडिया समूहों ने इन सवालों के जवाब नहीं भेजे। कुछ मीडिया समूह से दस से कम नाम सामने आए।

इस शोध को सीएसडीएस के सीनियर फेलो योगेंद्र यादव, पत्रकार और शिक्षक अनिल चमड़िया और स्वतंत्र शोधकर्ता जीतेंद्र कुमार ने कई सहयोगियों के साथ मिलकर किया। शोधकर्ताओं ने स्वीकार किया है कि इन आंकड़ों में कुछ दोष हो सकता है क्योंकि इसके लिए सभी 315 लोगों से अलग अलग बातचीत नहीं की गई है। लेकिन इसका शोध के निष्कर्षों पर कोई निर्णायक प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है।

नतीजे चौंकाने वाले नहीं थे। नतीजों का सार यहां देखिए।

- मीडिया में फैसला लेने वाले पदों पर पुरुष वर्चस्व (83%) है।

- ये वर्चस्व हिंदी इलेक्ट्रॉनिक (89%) में सबसे ज्यादा और इंग्लिश इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सबसे कम (78%) है।

- देश में द्विज आबादी 16% है और मीडिया के उच्च पदों पर उनकी संख्या 86% है।

- इन पदों पर आसीन लोगों में 49% ब्राह्मण हैं।

- फैसला लेने वाले 315 बड़े पत्रकारों में एक भी दलित या आदिवासी नहीं है। देश की एक चौथाई आबादी इन समुदायों की है।

- मीडिया के महत्वपूर्ण पदों पर सिर्फ 4% ओबीसी हैं।

- इन पदों पर एक भी महिला ओबीसी नहीं है।

- मीडिया के फैसला लेने वाले पदों में मुसलमानों की संख्या 3% है, जबकि उनकी आबादी लगभग 13% है।

कितने अश्लील आंकड़े हैं ये? इनकी बात करने वालों का क्या करेंगे आप?

3 comments:

bambam bihari said...

यही सवाल अभी एक टिप्पणी में पहलू नामक ब्लाग पर चंदूजी के पोस्ट पर दो दिन पहले मृत्युंजय कुमार ने उठाया था। सवाल बेहद विचारणीय है।

दिलीप मंडल said...

मृत्युंजय जी को पढ़ा है। पंजाब में पूरबियों पर उनके काम का इंतजार है। ऐसा एक काम हमारे बड़े भाई समान अरविंद मोहन मिश्र ने किया है। वो किताब मेरे पास है। चाहिए तो बताइएगा।

दिनेशराय द्विवेदी said...

दिलीप भाई। आप मीडिया की बात छोड़िए। सरकारी नौकरियों को छोड़ कर सब कहीं ये ही आंकड़े पाएंगे। इतने बरसों से आरक्षण के बावजूद स्थितियाँ नहीं बदली हैं। आरक्षण इस मर्ज की दवा नहीं है, वह केवल पेन रिलीवर है। मर्ज की सही चिकित्सा के लिए सही दवा का अनुसंधान करना पड़ेगा।

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