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Wednesday, March 19, 2008

उत्तम वाणिज्य, मध्यम चाकरी

अधम खेती, भीख निदान

जी हां, इक्कीसवीं सदी के भारत का, लगता है, यही सच है। खेती का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा घटकर 17.5 फीसदी रह गया है। लेकिन अभी भी काम करने वाले देश के आधे लोग लोग खेती में ही जुटे हैं। मतलब आमदनी अठन्नी, खाने वाले ढेर सारे। नतीजा है गांवों में तेजी से बढ़ती बदहाली और उससे भी तेजी से गांवों से शहरों में हो रहा पलायन। मुंबई से लेकर पंजाब और देश के कई और हिस्सों में तनाव का इससे सीधा नाता है। विवाद के कई पहलू हैं। पढ़िए अमर उजाला के संपादकीय पन्ने पर मेरा एक लेख, जो आज ही छपा है।

1 comment:

स्वप्नदर्शी said...

ये भी देखे
http://swapandarshi.blogspot.com/2008/03/blog-post.html

सिर्फ जाति ही एक परेशानी नही है, और वो आज समाज के केन्द्र मे भी नही है. और भी बहुत कुछ ताक पर लगा है. एक बडी फलक की सोच और सोची-समझी रणनीती की ज़रूरत है, क्रिशी को और समाज के बडे हिस्से को बचाने के लिये.

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