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Tuesday, May 20, 2008

मी लॉर्ड की मनमानी और संसद की काहिली

(सूचना के अधिकार से सबसे ज्यादा भयभीत तीन संस्थाओं - सुप्रीम कोर्ट, यूपीएससी और कार्मिक मंत्रालय ने आरक्षण की ऐसी व्यवस्था बनाई है, जिससे सिविल सर्विस की 50 फीसदी सीटें सवर्णों के लिए रिजर्व हो जाती हैं। इस गड़बड़ी को ठीक करने के मद्रास हाई फैसले को केंद्र सरकार सुप्रीमकोर्ट में चुनौती देती है। ये वो सरकार है जो खुद को सामाजिक न्याय और इनक्लूसिव ग्रोथ की सरकार बताती है। क्या ये बताने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट से इस बारे में क्या फैसला आया?- दिलीप मंडल)
भारतीय लोकतंत्र को अपने शुरुआती साल में लगभग इसी स्थिति से गुजरना पड़ा था। देश की आजादी के बाद राज्य सरकारों ने जब कृषि भूमि की सीमा तय कर अतिरिक्त भूमि को बांटने के लिए कानून बनाए तो जमींदार अदालतो में गए। अदालतों ने उन्हें निराश नहीं किया और हर अदालत से फैसले जमींदारों के पक्ष में आए। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने भूमि सुधार कानूनों के प्रति अदालतों के रवैए को देखते हुए संविधान में संशोधन किया। इसके तहत संविधान में नवीं अनुसूचि जोड़ी गई। इस अनुसूचि में डाले गए कानून न्यायिक समीक्षा से परे हो गए। ये संविधान का पहला संशोधन था। जिस कैबिनेट ने ये संशोधन किया उसमें डॉ. भीमराव आंबेडकर कानून मंत्री थे। 10 मई 1951 को इसे पेश करते हुए जवाहरलाल नेहरू की दृष्ठि साफ थी-
"संविधान के अमल में आने के पहले 15 महीने में मौलिक अधिकारों से जुड़े कुछ अदालती फैसलों की वजह से परेशानियां खड़ी हो रही है। ...पिछले तीन साल में राज्य सरकारों ने भूमि सुधार के जो कानून पास किए हैं, वो अदालतों की लंबी प्रक्रिया में उलझ गए हैं। इस वजह से ये महत्वपूर्ण कानून लागू नहीं हो पा रहे हैं, जिसका असर ढेर सारे लोगों पर पड़ रहा है।"
पहले संविधान संशोधन में ये बात जोड़ी गई-
"Validation of certain Acts and Regulations.-Without prejudice to the generality of the provisions contained in article 31A, none of the Acts and Regulations specified in the Ninth Schedule nor any of the provisions thereof shall be deemed to be void, or ever to have become void, on the ground that such Act, Regulation or provision is inconsistent with, or takes away or abridges any of the rights conferred by, any provisions of this Part, and notwithstanding any judgment, decree or order of any court or tribunal to the contrary, each of the said Acts and Regulations shall, subject to the power of any competent Legislature to repeal or amend it, continue in force."
तब से लेकर अब तक 57 साल बीत गए हैं। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही केंद्र सरकार और संसद की काहिली की वजह से पिछले ही साल सुप्रीम कोर्ट ने नवीं अनुसूचि को फिर से न्यायिक समीक्षा के तहत कर दिया। " हम भारत के लोग" का प्रतिनिधित्व करने वाली संसद अब चाहे कोई भी कानून बनाए, अदालत उसे रद्द कर सकती है। और ये अधिकार ऐसी अदालतों को है, जिसमें जजों की नियुक्ति जज आपस में ही कर लेते हैं क्योंकि जजों ने जजेज एक्ट पारित कर कार्यपालिका को जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया से बाहर कर दिया है।

कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने 3 मार्च 2008 को संसद में बताया कि जजों द्वारा जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को बदलने का केंद्र सरकार का कोई इरादा नहीं है।

रामास्वामी केस में हम देख चुके हैं कि जजों को हटाना लगभग नामुमकिन है। भारतीय लोकतंत्र के 61 साल में सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को हटाया नहीं जा सका है। और पिछले चीफ जस्टिस सब्बरवाल के मामले में पूरे देश ने देखा है कि भ्रष्ट जजों के खिलाफ न खबरें छापी जा सकती हैं न उनके खिलाफ कोई कार्रवाई हो सकती है।

ये बातें आज इसलिए हो रही हैं क्योंकि कल ही सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश के तहत सिविल सर्विस में नियुक्तियों के बारे में एक ऐसा फैसला दिया है जिससे न्यायपालिका पर लगा ये आरोप पुख्ता होता है कि - वहां से सामाजिक न्याय के पक्ष में कोई फैसला नहीं आ सकता।

यूपीएससी अब तक रिजर्वेशन का एक अद्भुत सिस्टम चला रही था। इसके तहत रिजर्व कटेगरी का कोई कैंडिडेट अगर जनरल मेरिट लिस्ट में आ जाता था तो उसे ये विकल्प दिया जाता था कि वो चाहे तो खुद को रिजर्व कटेगरी का घोषित कर दे। मिसाल के तौर पर जनरल मेरिट लिस्ट में 100वें नंबर पर आया दलित कैंडिडेट एससी लिस्ट में पहले या दूसरे नंबर पर है। अगर वो खुद को जनरल कटेगरी का मानता है तो मेरिट लिस्ट में नीचे होने के कारण उसे आईएएस की जगह कोई नीचे की सर्विस मिलेगी। लेकिन वो खुद को दलित कैंडिडेट माने तो एससी लिस्ट में अव्वल होने के कारण वो आईएएस बन जाएगा। लेकिन दलित लिस्ट में उसके आते ही जनरल कटेगरी की खाली हुई सीट पर कोई जनरल कैंडिडेट आ जाएगा।

इस व्यवस्था की वजह से सिविल सर्विस में 50 फीसदी सीटें अब तक सवर्ण कैंडिडेट के लिए रिजर्व थीं। जनरल कटेगरी में किसी और कटेगरी का प्रवेश वर्जित था। इस व्यवस्था को मद्रास हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था।

लेकिन सामाजिक न्याय के प्रति वफादार और प्रतिबद्ध यूपीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी। और सामाजिक न्याय के मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट से क्या फैसला आएगा, इसे लेकर किसी को शक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की आपत्ति को सही मानते हुए मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया।

यानी अदालतें आज भी 1950 के टाइमफ्रेम में फ्रीज हैं। अदालतों का यथास्थितिवाद और जातिवाद मौजूदा समय में लोकतंत्र का एक बड़ा संकट है। अगर ऐसे फैसले आते रहे तो न्यायपालिका की विश्वसनीयता और कम हो जाएगी। केंद्र सरकार की स्थिति ये है कि वो सामाजिक न्याय के नारे तो लगाती है लेकिन कर्मों में वो पूरी तरह यथास्थिति के पक्ष में खड़ी होती है। यूपीएससी में पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे आरक्षण विरोधियों को ही नियुक्त किया जाता है। कार्मिक मंत्रालय में किसी अवर्ण मंत्री की आप कल्पना नहीं कर सकते।

इसके बावजूद अगर समाज बदल रहा है तो इसका श्रेय उत्पादन संबंधों में आ रहे बदलाव को जाता है। सरकार से लेकर अदालतें इस प्रक्रिया में बाधक ही हैं।

1 comment:

sudo.inttelecual said...

what u saying that u stood 100 rank in gen categorgy and u r 1 st in sc then how u r toooper of general category abhi to merit ki bat karo reservation walo

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